लोक संस्कृतियों और लोकभाषा से समृद्ध हिन्दी सिनेमा
किशोर साहू की फिल्म ‘नदिया के पार’ के संदर्भ में
डाॅ- रमेश अनुपम1] आकांक्षा दुबे2
1सहायक प्राध्यापक] शासकीय दू-ब- महिला स्नाताकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय] रायपुर (छ-ग-)
2शा- दू- ब- महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय] रायपुर (छ-ग-)
’ब्वततमेचवदकपदह ।नजीवत म्-उंपसरू
प्रस्तावना:
‘‘चलचित्र कहानी प्रस्तुत करने का एक जरिया है] इसलिए फिल्म एक जुबान है] भाषा है। कहानी कई तरीकों से प्रस्तुत की जा सकती है। बोले हुए शब्दों में] नृत्य में] कविता में] गीत में] हावभाव में] तस्वीर में। सिनेमा में ये सब समा जाते हैं। सिनेमा सिर्फ कला नहीं कलाओं में महान कला है।’’
-चेतन आनंद
साहित्य समाज का दर्पण है तो सिनेमा समाज का अक्स। साहित्य की अपेक्षा सेल्युलाइड अधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हुआ । साहित्य का आस्वाद चखने के लिए शिक्षा की अनिवार्यता पाठकों को होती है] पर सेल्युलाइड साहित्य में शिक्षा की अनिवार्यता का बंधन नहीं है। सिनेमा की भाषा] दृश्य भाषा हैं। भारतीय जनजीवन में लोकभाषा] लोकतन्त्र शहरे से अपनी बैठ बनाए हुए है। लोकभाषा] लोकसंस्कृतियों का अनूठा प्रयोग हम सेल्युलाइड साहित्य में भी पाते है। छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र कथाकार निर्देशक किशोर साहू ने हिन्दी सिनेमा से छत्तीसगढ़ी लोकसभा और लोकतत्वों को समाहित कर हिन्दी सिनेमा संसार को समृद्ध किया । सिनेमा में लोकभाषा के मिश्रण का प्रथम प्रयास किया और सफल हुए। चित्रपट ‘नदिया के पार’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कई अर्थो में अविस्मरणीय है। इस चित्रपट में रोचक पटकथा] मनमोहक दृश्य संयोजन और आकर्षण संवाद योजना का अनूठा संगम दिखाई देता है। छत्तीसगढ़ किशोर साहू का संस्कारधानी रहा है] अपने इस चित्रपट के माध्यम से किशोर साहू ने अपनी मातृभूमि का ऋण-चुकाया है। छत्तीसगढ़ी संवादों के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी आभूषण] छत्तीसगढ़ की वेश-भूषा] छत्तीसगढ़ के रीति-रिवाजों को भी मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया है। विलक्षण संवाद संयोजन से समृद्ध सिनेमा ‘नदिया के पार’ छत्तीसगढ़ी भाषा के सेल्युलाइड पर्दे पर प्रस्तुत होने वाली अनमोल वृति है। इस लिहाज़ से भी किशोर साहू को भारतीय फिल्मों में छत्तीसगढ़ी का फणीश्वरनाथ रेणु कहा जा सकता है।
लोकसंस्कृतियों और लोकभाषा से समृद्ध हिन्दी सिनेमा (किशोर साहू की फिल्म ‘नदिया के पार’ केसंदर्भ में)
‘‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सन् 1929 में रंगमंच से जुड़े मुरारी भादुड़ी को लिखा था-‘‘सिनेमा अनुभूतियों की श्रृंखला है। इस गतिमय दृश्य माध्यम की सुन्दता और भव्यता इस बात पर निर्भर करती है कि बिना बोली हुई भाषा में ही वह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम हो--1
सिनेमा का संसार बड़ा ही समृद्ध है] इसमें कहानी] नायक] गीत] कविता] चित्रकारी छायांकन जैसी कलाओं का समावेश है। भारतीय सिनेमा ने वर्ष 1913 में ‘राजा हरिशचन्द्र’ से अपना सफर आरंभ किया लेकिन हिन्दी सिनेमा का वास्तविक प्रारंभ चित्रपट में आवाज के संयोजन से हुआ। हिन्दी सिनेमा को प्रतिष्ठित करने के लिए निर्माता-निर्देशकों ने अभिनव प्रयास किये। हिन्दी सिनेमा के साथ ही भाषायी सिनेमा का भी जन्म हुआ। उस दौर में जब हिन्दी सिनेमा पूरी तरह अपने कदमों में खड़ा भी नहीं हो पाया था] उस अवस्था में निर्माता-निर्देशक एवं पटकथा लेखक किशोर साहू ने ‘‘नदिया के पार’’ सिनेमा का निर्माण किया। यह पहली हिन्दी सिनेमा है] जिसमें किशोर साहू ने लोकभाषा] लोकगीत] लोकसंगीत और लोकनृत्य का प्रयोग किया। ‘नदिया के पार’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कई अर्थो में अविस्मरणीय सिनेमा है। साहित्य और सिनेमा को एक-दूसरे में समाहित करने की कला किशोर साहू भली-भांति जानते थे। उन्होंने ‘नदिया के पार’ की पटकथा लिखते समय प्रेम के अनेक रंग उड़ेले हैं ताकि प्रेम केवल प्रेम ही दिखायी दे और सुनाई दे। सिनेमा के संदर्भ में इब्राहिम अश़्क का एक लेख स्मरण होता है जिसमें उन्होंनें लिखा है कि- ‘‘विभिन्न भाषा भंगिमाओं के जरिए इंसानी संवेदनाआंें को बयान करना ही सिनेमा है] जिसमें भाषा की एक महत्वपूर्ण भूूमिका होती है बिना भाषा के एक फिल्म सिनेमा तो है लेकिन सारतत्व भाषा न होने से उसकी संवेदनशील कमजोर होने लगती है।’’2
भाषा पर किशोर साहू की मजबूत पकड़ थी] उन्हांेने हिन्दी सिनेमा में लोकभाषा के मिश्रण का प्रथम प्रयास किया जो सफल रहा। इस सिनेमा में हिन्दी और लोकभाषा (छत्तीसगढ़़ी) के संवाद को बड़ी ही खूबसूरती से गढ़ा है। सिनेमा का प्रथम दृश्य जिसमें डाॅक्टर बाबू मोतीपूर स्टेशन से रवाना होते हैं] तो गांव वाले के साथ कुछ इस तरह का संवाद करते हैं
डाॅक्टर - रे सुनो मंडल] ये रास्ता कहां जाता है?
एक ग्रामीण - कहां जाबे मालिक
डाॅक्टर - नीलमगढ़
ग्रामीण- तनिक दूर जाबे त मछुआ घाट] अउ नदिया के ओ पार नांदघाट। पर जाबे कइसे] मालिक सूरज तो डूबगे हे।
इस सिनेमा में ‘प्रेम कथा’ को नये ढांचे में हिन्दी और छत्तीसगढ़़ी के संयोजन से बड़ी ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। नायिका और नायक के प्रथम मिलन का संवाद भी कुछ ऐसा ही है। गोली चलने की आवाज से नायिका सेल्युलाइड पर पहली बार नजर आती है और नायक से इस तरह संवाद करती है -
फुलवा - बड़े शिकारी बने हो बाबू तो सेर का सिकार करो न] दाल आटे का भाव पता चल जइहैं। मोर पालतू हिरना मा गोली दागे बर तोला लाज नई आए।
कुंवर - पालतू हिरना
फुलवा - मोर हे] अब देखौ कइसे गोली दागथव तुम।
एक अन्य दृश्य में सह-नायक के साथ नायिका का संवाद भी कुछ इसी तरह पिरोया गया है-
बाला - कोन डहार देखथे अऊ कोन डहार चलथे] फेर फोड़री घड़ा] रोज-रोज इतना घड़ा तोड़ेगी वो मेरा तो दीवाला निकल जाएगा।
फूलवा - क्यों रे? घड़े का पइसे का तू देता है?
बालाा - मेरे घर आएगी तो मुझे ही तो देना पड़ेगा ना
फुलवा - तोर घर ! मुंह धोकर रख] मरने को जी जाए] कफन को टोटा
इस तरह के छत्तीसगढ़ी संवादों के प्रयोग से] किशोर साहू ने छत्तीसगढ़ की इस लोकभाषा को सेल्युलाइड के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाने का सार्थक प्रयास किया है। साथ ही इस सिनेमा में हिन्दी के संवाद भी उत्ःकृष्ट कोटी के हैं। हिन्दी के संवाद भी साहित्यिक रूप से विलक्षण और उल्लेखनीय है:-
पुष्पा - वो दीवान जी की लड़की।
प्रताप - चंचल बड़ी ही सुंदर है। कहीं उसे बहू बनाने का इरादा तो नहीं।
पुष्पा - न! वो तो कोट पतलून पहन के मटकती है।
प्रताप - औरत साड़ी पहने या कोट पतलून इससे उसके औरत होने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुंवर भी काॅलेज में पढ़ा है ये दो हाथ घूंघट वाली लड़की तो उसे चलेगी नहीं।
इस संवाद से किशोर साहू के आधुनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। हिन्दी पर पकड़ के लिए उन्हें आचार्य किशोर साहू --- जाता है। इस संदर्भ में इकबाल रिज़वी ने ‘हंस’ पत्रिका में अपने एक लेख में लिखा है:-
‘साहू की हिन्दी के प्रति गहरी दिलचस्पी की वजह से उन्हें आचार्य कहा जाने लगा था। अमृतलाल नागर] भगवतीचरण वर्मा] मोती बीए और महेश कौल’ जैसी हिन्दी के साहित्यकारों उनके रिश्ते बने।’’3
इस सिनेमा में हिन्दी का शुद्ध और परिमार्जित संवाद सिनेमा के अंत में नरी के बीच] नाव पर सवार दो प्रेमियों का संवाद है जो नदी के भंवर मंे फंसे] मृत्यु के निकट होते हुए भी] प्रेम में डुबे हुए हैं] यह संवाद इसने साक्ष्य है -
फुलवा -वो देखे हमारे ब्याह की पवित्र अग्नि जल रही है। हमारे ब्याह की सप्तपदी हो रही है।
कुंवर - नदिया के पार अनंत में हमारे मिलन का संगीत बन रहा है।
फुलवा - हां कुंवर मेरे सुहाग की शहनाई सुनायी पड़ रही है।
कुंवर - दुनिया वालों ने तो हमें नहीं मिलने दिया फुलवा] पर अब तो कोई जुदा नहीं कर सकता।
फुलवा - अब हमें कोई जुदा नहीं कर सकता।
इस तरह कहानी फ्लेश बैक में चलती है जो अद्भुत फैंटेसी से पूर्ण है। इस तरह हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के सशक्त संवादों से सिनेमा को प्रस्तुत करने का साहस केवल किशोर साहू ही कर सकते थे। भाषा की सार्थकता उसकी सम्प्रेषणीयता पर निर्भर होती है। इस बात से किशोर साहू भली-भांति परिचित थे और उन्होंने इसे संज्ञान में रखकर ही सिनेमा में लोकभाषा के प्रयोग का जोखिम उठाया। लोकगीतों में संवादधर्मिता होती है] विषय अभिव्यक्ति में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस आशय से लोकगीतों का सिनेमा में प्रवेश अनिवार्य प्रतीत होता है और इस बात को किशोर साहू ने बखूबी समझाा।
चालीस के दशक के अंतिम चरण में हिन्दी चित्रपट के संदर्भ में डाॅ- (श्रीमती) विमल ने अपनी किताब के लेख में लिखा है कि ‘‘इस दशक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि चित्रपट के गीतों की धुनों में भारत के विभिन्न भागों के लोक संगीत का प्रयोग किया गया जिसमें भारतीय संस्कृति की झलक साफ दिखाई पड़ती है।’’4
गीत-संगीत की दृष्टि से भी ‘‘नदिया के पार’ एक महत्वपूर्ण सिनेमा है। इस फिल्म में किशोर साहू ने संगीतकार के रूप में सी- रामचंद्र को और गीतकार के रूप में मोतीलाल बी-ए- को लिया। इस सिनेमा में दोनों की जोड़ी ने एक से बढ़कर एक गीतों की रचना है] जो कर्णप्रिय होने के साथ ही अर्थवान और कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक है। लोकगीत होने के बावजूद ‘नदिया के पार’ के गानों में लोकव्यापी प्रसिद्धि पायी। उनमें प्रमुख है:-
1- ‘‘मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार] मोरी रानी हो तुमही मोरी प्राण आधार’’ इस गीत को मोहम्मद रफी व सुरेन्द्र कौर ने अपना स्वर दिया।
2- ‘‘नगरिया में अइहो] डगरिया में अइहो] बजरिया में अइहो] रे अइहो हो सांवरिया’’ इस गीत को ललिता देऊलकर और चितलकर ने अपना स्वर दिया।
3- ‘‘अई! मार गयो रे मोर दिल पे कटारी] जूलम करे रे तोरी अंखियां करारी’’ इस गीत को शमशाद बेग़म ने अपना स्वर दिया।
4- ‘‘ओ गोरी-ओ गोरी कहां चली हो] मैं हूं चली अपने साजन के गली हो -- स्वर सामज्ञी लता मंगेशकर व कोरस।
इस सिनेमा के लिए संगीतकार सी- रामचंद्र ने कोली जाति में प्रचलित लोकगीत एवं लोकधुन का प्रयोग किया। छत्तीसगढ़ के सपूत किशोर साहू को अपने छत्तीसगढ़ से विशेष लगाव था। इनके संदर्भ में प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक व आलोचक श्री विष्णु खरे ने अपने लेख में किशोर साहू की इस विशेषता को कुछ इस तरह लिखा है- ‘‘किशोर साहू द्वारा निर्देशित नदिया के पार सिर्फ इसलिए ऐतिहासिक नहीं कही जाएगी कि उसमें उस वक्त की दिलीप कुमार-कामिनी कौशल की सबसे प्रतिभावान युवा रोमांटिक जोड़ी थी] बल्कि यूं भी कि उसमें किशोर साहू ने पहली बार अपनी आंचलिक छत्तीसगढ़़ी भाषा और संस्कृति का इस्तेमाल किया। कामिनी कौशल को छत्तीसगढ़ी बोलते सुनना एक रोमांचक अनुभव था] जो आज भी एक अल्पज्ञात और उपेक्षित भाषा है। इस लिहाज से किशोर साहू को भारतीय फिल्मों में छत्तीसगढ़ी का फणीश्वरनाथ ‘‘रेणु’’ कहा जा सकता है। वह आज के छत्तीसगढ़ी फिल्म के जनक भी माने जा सकते है।’’5
किशोर साहू को अपनी छत्तीसगढ़ी भाषा से विश्ेाष लगाव था। अपनी भाषा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी वेशभूषा का आकर्षण उनके मन में किस तरह स्थापित था इसका प्रमाण ‘नदिया के पार’ से साफ झलकता है। एक ओर जहां सिनेमा में छत्तीसगढ़ी संवाद है तो वहीं नायिका छत्तीसगढ़ी परिधान से सुसज्जित] घुटने तक की सूती साड़ी] रूपया माला] पैरी पहने परदे पर नजर आती है।
यह पहली हिन्दी सिनेमा है जिसमें किशोर साहू ने छत्तीसगढ़ी बोली का भरपूर प्रयोग किया है। मूलतः छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के रहने वाले किशोर साहू ने अपने माटी के प्रति अपने ऋण को चुकाने का प्रयास किया है। कहा जाता है कि इस फिल्म की शूटिंग राजनांदगांव के आसपास ही हुई है जो अपने आप में ऐतिहासिक और उल्लेखनीय प्रसंग है। आज जबकि छत्तीसगढ़ी सिनेमा का इतना ढिंढोरा पीटा जा रहा है। नायक-नायिकाओं] लेखक-निर्देशक] गीतकार] संगीतकार की बाढ़ सी आ चुकी है तब भी इनमें से कोई भी फिल्म ‘‘नदिया के पार’’ का मुकाबला नहीं कर सकती है। इस फिल्म का अन्त नायक-नायिका के मृत्यु के साथ होता है। ये प्रयोग भी किशोर साहू ने अपने सिनेमा में पहली बार किया] जो कि दर्शकों के द्वारा बखूबी सराहा गया।
‘‘नदिया के पार’’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कई अर्थो में एक अविस्मरणीय फिल्म है। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक कालजयी कृति।
संदर्भ-
1- अश़्क इब्राहिम] ‘‘सम-सामयिक सृजन’’ हिन्दी फिल्मों की भाषा। प्रकाशन- रूचिका प्रिन्टर्स] बी-25] नई दिल्ली] वर्ष - अक्टूबर - मार्च] 2012-13] पृष्ठ संख्या - 42
2- रिज़वी इकबाल] सिनेमा के प्रयोगधर्मीः साहित्यिक किशोर साहू] ‘‘हंस: हिन्दी सिनेमा के सौ साल’’] पृष्ठ संख्या -74
3- डाॅ- (श्रीमती) विमल] ‘‘हिन्दी चित्रपट एवं संगीत का इतिहास - संगीता का उद्भव व विकास’’] प्रकाशक: संजय प्रकाशन] दरियागंज] नई दिल्ली] पृष्ठ संख्या - 99।
4- खरे] विष्णु] ‘‘स्मारिका - स्मरण किशोर साहू’’] छत्तीसगढ़] मध्यप्रदेश] महाराष्ट्र और भारत का गौरव। पृष्ठ संख्या-11
5- नदिया के पार- सिनेमा के संवाद।
Received on 11.03.2017 Modified on 16.03.2017
Accepted on 28.03.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences. 2017; 5(1): 33-36.